1) श्री गुरू नानक देव

 (1) श्री गुरू नानक देव  जीवनी


सिख धर्म के प्रथम श्री गुरु नानक देव जी को अनुयायी श्री गुरु नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं. 
सिख धर्म के प्रथम आदि गुरु, गुरू नानक का जन्म 15 अप्रैल 1469 को पंजाब प्रान्त के तलवंडी नामक गाँव में में रावी नदी के किनारे स्थित कार्तिकी पूर्णिमा को एक खत्रीकुल में हुआ था. गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु के गुण समेटे हुए थे.  गुरु नानक, गुरु नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह के नाम से भी जाने जाते है इनके पैदा होने के बाद से ही सिख धर्म का प्रचार व प्रसार हुआ था क्योकि इन्ही ने सिख धर्म की स्थापना की थी | इनके अंदर दार्शनिक, समाजसुधारक, धर्मसुधारक, कवि, देशभक्त, योगी, गृहस्थ और विश्वबंधु सभी के गुणों को अपने अंदर समेटे हुए थे | कुछ मतो के अनुसार इनका जन्म हिन्दू कैलेंडर के कार्तिक महीने के पूर्णिमा को हुआ था जो की दीपावली के त्योहार के दिन 15 दिन बाद पड़ता है इसलिए सिख धर्म में इनके जन्मदिवस को “गुरु नानक जयंती” “प्रकाश पर्व” या “गुरु पर्व” के रूप में मनाया जाता है. तलवंडी का वह स्थान आज उन्हीं के नाम पर अब ननकाना के नाम से जाना जाता है. इनके पिता का नाम कालू मेहता था और माता का नाम तृप्ता देवी था.

गुरु नानक देव बचपन से ही आध्यात्मिक ज्ञान के प्रवर्तक थे उनका मानना था की यह संसार ईश्वर द्वारा बनाया गया है और हम सब ईश्वर के ही सन्तान है और ईश्वर का निवास हर किसी के नजदीक ही है जो हमे गलत सही का बोध कराते है ।


गुरु नानक देव जी सिखों के पहले गुरु थे। अंधविश्वास और आडंबरों के कट्टर विरोधी गुरु नानक का प्रकाश उत्सव (जन्मदिन) कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है हालांकि उनका जन्म 15 अप्रैल 1469 को हुआ था। सिख ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि गुरु नानक जी को परमात्मा का साक्षात्कार हुआ था औऱ परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया था।गुरु नानक देवजी ने जात−पांत को समाप्त करने और सभी को समान दृष्टि से देखने की दिशा में कदम उठाते हुए ‘लंगर’ की प्रथा शुरू की थी।


गुरुनानक का जन्म आज से लगभग 500 वर्ष पहले 15 अप्रैल 1469 को पंजाब के तलवंडी नामक गांव में हुआ था. यह अब ननकाना साहिब,पाकिस्तान मे है. इनके पिता का नाम कालूराय मेहता और माता का नाम तृप्ता था.

नानक जब कुछ बड़े हुए तो उन्हें पढने के लिए पाठशाला भेजा गया. उनकी सहज बुद्धि बहुत तेज थी. वे कभी-कभी अपने शिक्षको से विचित्र सवाल पूछ लेते जिनका जवाब उनके शिक्षको के पास भी नहीं होता. जैसे एक दिन शिक्षक ने नानक से पाटी पर ‘अ’ लिखवाया.तब नानक ने अ तो लिख दिया किन्तु शिक्षक से पूछने लगे- गुरूजी ! ‘अ’ का क्या अर्थ होता है ? यह सुनकर गुरूजी सोच में पड़ गये.भला ‘अ’ का क्या अर्थ हो सकता है ? ‘अ’ तो सिर्फ एक अक्षर है-गुरूजी ने कहा.

नानक का मन पाठशाला में नहीं रमा. वे अपने गांव के आस-पास के जंगलो में चले जाते और साधू-संतो की संगत करते. उनसे वे ईश्वर,प्रकृति और जीव के सम्बन्ध में खूब बातें करते. नानक का मन पढने-लिखने में नहीं लग रहा यह जब उनके पिता ने देखा तो उनके पिता ने उन्हें जानवर चराने का काम सौंप दिया.

इसके बाद भी नानक का सोच-विचार में डूबे रहना बंद नहीं हुआ.तब उनके पिता ने उन्हें व्यापार में लगाया. उनके लिए गांव में एक छोटी सी दूकान खुलवा दी. एक दिन पिता ने उन्हें 20 रूपये देकर बाजार से खरा सौदा कर लाने को कहा. नानक ने उन रूपयों से रास्ते में मिले कुछ भूखे साधुओ को भोजन करा दिया और आकर पिता से कहा की वे ‘खरा सौदा’ कर लाये है. यह सुनकर कालू मेहता गुस्से से भर गये.

तब माता-पिता ने सोचा की अगर नानक का विवाह कर दिया जाय तो शायद नानक का मन गृहस्थी में लग जाये. इसलिए बटाला निवासी मूलराज की पुत्री सुलक्षिनी से नानक का विवाह करा दिया गया. सुलक्षिनी से नानक के 2 पुत्र पैदा हुए. एक का नाम था श्रीचंद और दुसरे का नाम लक्ष्मीदास था लेकिन विवाह के बाद भी नानक का स्वभाव नहीं बदला.

विवाह के बाद कुछ समय तक उन्होंने सुल्तानपुर नवाब के वहां अनाज बांटने की नौकरी की परन्तु इसे भी छोड़ दिया. अब वे पूरी तरह साधू-संतो की संगत, चिंतन-मनन और ध्यान में राम गये. इस बीच उनके अनेक शिष्य बने. सुल्तानपुर में एक गाने बजाने वाला मरदाना उनका शिष्य बना. वह रबाब बहुत अच्छी बजाता था. उनके साथ नानक ने घर-बार छोड़ दिया और यात्रा में निकल पड़े

इस समय सारे समाज में अन्धविश्वास,ऊँच-नीच और जाति-पाति की भावनाएं फैली हुए थी. सरकारी कारिंदे और जमींदार जनता को लूट रहे थे. जनता की ऐसी दशा देखकर गुरुनानक जनता के बींच निकल पड़े. सबसे पहले उन्होंने दक्षिण-पश्चिमी पंजाब की यात्रा की. यात्रा करते हुए वे सैदपुर गांव में पहुंचे. वहां वे लालू नमक एक बढई के घर रुके. यह गरीब, मेहनती, साधू-संतो का सेवक था.

यह बात गांव घर में फ़ैल गयी की गुरु नानक एक गरीब बढई के घर में ठहरे है. उसी गांव में ऊँची जाति का एक धनवान व्यक्ति भागो रहता था. उसने अपने यहाँ दूर-दूर से संधू-संतो को बुलाकर एक भव्य भोज का आयोजन करवा रखा था. उन्होंने नानक को भोज में बुलाया किन्तु उन्होंने वहां जाने से इंकार कर दिया.

आखिर भागो ने उनसे अपने यहाँ न खाने का कारण जानना चाहा तो नानक ने कहा- मैं ऊँच-नीच में भेदभाव को नहीं मानता, लालो मेहनत से कमाता है जबकि तुम गरीबो,असहायों को सताकर दौलत कमाते हो. उसमे मुझे गरीबो के छीटे नजर आते है. जब नानक जी ने एक हाथ से लालो की सूखी रोटी और दुसरे हाथ से भागो के घर का पकवान और जब दोनों हाथो को निचोड़ा तो लालो की रोटी से दूध निकला तो वही भागो की रोटी से खून निकला. यह देखकर भागो और अन्य लोग भौचक्के रह गये.

यहाँ से घूमते हुए वे पानीपत के सूफी संत शाह शरफ से मिले, जो उनसे मिलकर बहुत खुश हुआ. इसके बाद उन्होंने बहुत जगहो की यात्रा की. यात्रा करते हुए वे असम पहुंचे, जहाँ एक ऊँची जाति का व्यक्ति खाना पका रहा था. नानक उसके चौके में चले गये.

यह देखकर वह व्यक्ति नानक पर गुस्सा हो गया और चौके के भ्रष्ट होने की बात कही. यह सुनकर नानकदेव ने कहा की आपका चौका तो पहले से भ्रष्ट है क्योंकि आपके भीतर जो नीची जातियां बसती है, आप उसे कैसे पवित्र करेंगे. यह सुनकर वह आदमी बहुत शर्मिंदा हुआ.

इस यात्रा में वे कुष्ठ रोगी के घर भी रुके और अपनी सेवा से उसे स्वस्थ बनाया. नानक ने अपनी यात्रा में मक्का और मदीना की भी यात्रा की. कहते है की एक बार भूलवश नानक जी जब लेटे थे, तो उनका पैर काबा की तरफ था.

एक व्यक्ति ने उनसे कहा की वे अपने पैर काबा की तरफ करके क्यों लेटे है तो नानक ने कहा की तुम मेरे पैर को उधर घुमा दो जहा को काबा नहीं है. वह व्यक्ति जिधर पैर घुमाता, उधर काबा ही नजर आता. अंत में उस व्यक्ति ने नानक जी से माफ़ी मांगी.

मक्का मदीना से लौटते वक्त बाबर के सैनिको ने उन्हें पकड लिया. लेकिन जब बाबर को उनकी प्रसिद्धि का पता चला तो उन्हें छोड़ना चाहा. परन्तु नानक जी ने यह शर्त रखी की उनके सारे कैदियों को छोड़ दिया जाय.

कई वर्ष बाद यात्रा करने के बाद उन्होंने करतारपुर में अपना आश्रम बनाया और अपने परिवार तथा शिष्यों के साथ वही रहने लगे. इसी बीच उनका लहिना नामक शिष्य बना,जो गुरु की वर्षो तक सेवा करता रहा. अपने जीवन के अंतिम दिनों में कठिन परीक्षाओ के उपरांत नानकदेव ने लहीना को गुरु अंगद के नाम से अपना उत्तराधिकारी बनाया.

गुरु नानक की प्रमुख शिक्षाएं-:
* ईश्वर को अपने भीतर ढूंढो.
*कोई भी मनुष्य दुसरो को अपने से छोटा न समझे.
*सभी जातियां और धर्म समान है.
*ईश्वर को पाने के लिए किसी भी प्रकार का बाहरी आडम्बर बेकार है.

उनके अनुसार सब एक ईश्वर की उत्त्पति है, उसके लिए कोई भी बड़ा या छोटा नहीं है.

नानक जी एक महान कवि थे.इस रूप में ये हिन्दी व पंजाबी के एक महान कवि माने जाते है. गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर व आचार्य विनोबा भावे के अनुसार नानकजी की ”कीर्तन साहिल” संसार के एक उच्च काव्य का एक नमूना है.

इनके द्वारा लिखी वाणी श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में निहित है. इनके महान दार्शनिक ज्ञान,सूझ और प्रभावशाली वाणी व काव्य के सामने विद्द्वानो की शिक्षा भी फीकी पढ़ जाती है. गुरु नानक जी को यदि एक युग-प्रवर्तक कहा जाय तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी.

सन 1539 में गुरु नानकजी ज्योति ज्योत में समा गये.











(1) जिन्होंने प्रेम किया है वे वही हैं जिन्होंने परमात्मा को पाया है।

(2) ईश्वर एक है, लेकिन उसके कई रूप है । ईश्वर सभी का निर्माणकर्ता है और वो खुद मनुष्य का रूप लेता है ।

(3परमात्मा एक है और परमात्माके लिए सब एक समान है ।

(4) भगवान पर वही विश्वास कर सकता है जिसे खुद पर विश्वास हो ।

(5) भगवान उन्हें ही मिलते है जो प्रेम से भरे हुए है ।

(6) ईश्वर वह है जिसकी चमक में सभी कुछ प्रकाशमान है ।

(7) ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है…

(8) ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है हम सबका पिता है इसलिए हमे सबके साथ मिलजुलकर प्रेमपूर्वक रहना चाहिए ।

(9) भगवान के दरबार में सभी कर्मों का लेखा-जोखा होता है।

(10) धन-बैभव से युक्त बड़े-बड़े राज्यों के राजा-महाराजों की तुलना भी उस चींटी से नहीं की जा सकती है जिसमे भगवान का प्रेम भरा हो ।

(11) तर्क द्वारा कोई ईश्वरको नहीं समझ सकता, भले ही युगों तक वह तर्क करता रहे

(12) ईश्वर की सीमायें और हदें सम्पूर्ण मानव जाती की सोच से परे हैं।

(13) भगवान के लिए खुशियों के गीत गाओ, भगवान के नाम की सेवा करो और उसके सेवकों के सेवक बन जाओ ।

(14) ईश्वर एक है उसके रूप अनेक है ।

(15) गुरु नानक देव ने इक ओंकार का नारा दिया यानी ईश्वर एक है। 

(16) मेरा जन्म ही नही हुआ है तो भला मेरा जन्म या मृत्यु कैसे हो सकता है।

(17) तेरी हजारो आँखे है फिर भी एक आँख नही, तेरे हजारो रूप है फिर भी एक रूप नही ।

(18) ना मै बच्चा हु, 
ना एक युवक हु, 
ना पौराणिक हु और 
ना ही किसी जाति से हु ।

(19) सभी एक समान है और सब ईश्वर की सन्तान है ।

(20) सब धर्मो और जातियों के लोग एक है ।

(21) यदि लोग अपने धन का प्रयोग सिर्फ खुद के लिए और खजाना भरने के लिए करते हैं तो वह शव की तरह है, परन्तु यदि वे इसे दूसरों के साथ बांटने का निर्णय लेते हैं तो वह पवित्र भोजन बन जाता है।

(22) सच्चा धार्मिक वही है जो सभी लोगो का एक समान रूप से सबका सम्मान करते है ।

(23) सिर्फ वही शब्द बोलना चाहिए जो शब्द हमे सम्मान दिलाते हो ।

(24) यह दुनिया कठिनाईयों से भरी है, लेकिन जिसे खुद पर भरोसा होता है वही विजेता कहलाता है ।

(25) संसार को जीतने के लिए अपने कमियों और विकारो पर विजय पाना भी जरुरी है ।

(26) जब शरीर गन्दा हो जाता है तो हम पानी से उसे साफ़ कर लेते हैं। उसी प्रकार जब हमारा मन गन्दा हो जाये तो उसे ईश्वर के जाप और प्रेम द्वारा ही स्वच्छ किया जा सकता है। 

(27) बंधुओ 
हम मौत को बुरा नही कहते यदि हम जानते की मरा कैसे जाता है।

(28) कभी भी किसी भी परिस्थिति में किसी का हक नही छिनना चाहिए।

(29) आप सबकी सदभावना ही मेरी सच्ची सामजिक प्रतिष्ठा है।

(30) जो लोग अपने घर में शांति से जीवन व्यतीत करते है उनका यमदूत भी कुछ नही कर पाते है।

(31) इस दुनिया में जब जब  तुम खुशियाँ मांगते हो दर्द सामने आ जाता है। खुशियाँ बाटने से ही खुशियाँ मिलती हैं।

(32) कभी भी बुरा कार्य करने की सोचे भी नही और न ही कभी किसी को सताए।

(33) कभी किसी का हक़ नहीं छीनना चाहियें। जो व्यक्ति ऐसा करता है उसे कही भी सम्मान नहीं मिलता।

(34) ईमानदारी से मेहनत करके ही अपना पेट पालना चाहिए।

(35) जब भी किसी को मदद की आवश्यकता पड़े हमे कभी भी पीछे नही हटना चाहिए।

(36) यह दुनिया सपने में रचे हुए एक ड्रामे के समान है ।

(37) गुरु द्वारा ही आपके जीवन में प्रकाश संभव है। गुरु उपकारक है। पूर्णशांति उसमे निहित है। गुरु ही तीनो लोकों में उजाला करने वाला प्रकाशकुंज है। सच्चा शिष्य ही ज्ञान और शांति प्राप्त करता है।

(38संसार में किसी भी व्यक्ति को भ्रम में नहीं रहना चाहिए । बिना गुरु के कोई भी दुसरे किनारे तक नहीं जा सकता है ।

(39) ईश्वर की प्राप्ति गुरु द्वार संभव है, इसलिए गुरु का सम्मान और वंदन करो।

(40) मैं लगातार उसके चरणों को नमन करता हूँ, और उनसे प्रार्थना करता हूं, गुरु, सच्चे गुरु, ने मुझे रास्ता दिखाया है।

(41) अहंकार कभी भी मनुष्य को मनुष्य बनकर नही रहने देता है इसलिए कभी भी अहंकार या घमंड नही करना चाहिए। 

(42) अहंकार द्वारा ही मानवता का अंत होता है। अहंकार कभी नहीं करना चाहियें बल्कि ह्रदय में सेवा भाव रख जीवन व्यतीत करना चाहियें। 

(43) वहम और भ्रम का हमे त्याग कर देना चाहिए।

(44) हमेशा दुसरे के मदद के लिए आगे रहो।

(45) जब आप किसी की मदत करते हैं तो भगवान आपकी मदत करता है। हमेशा दूसरों की मदत के लिए आगे रहो।

(46) धन को जेब तक ही रखें उसे ह्रदय में स्थान न दें। जब धन को ह्रदय में स्थान दिया जाता है तो सुख शांति के स्थान पर लालच, भेदभाव और बुराइयों का जन्म होता है।

(47) चिंता से दूर रहकर अपने कर्म करते रहना चाहिए।

(48) अपने मेहनत की कमाई से जरुरतमन्द की भलाई भी करनी चाहिए ।

(49) सदैव परोपकार करो ।

(50) सच्चा जीवन निर्वाह करो ।

(51) सत्य को जानना हर एक चीज से बड़ा है और उससे भी बड़ा है सच्चाई से जीना।

(52) ओछी बुद्धि से मन भी ओछा हो जाता है और व्यक्ति मिठाई के साथ मक्खी भी खा जाता है  ।

(53) रस्सी की अज्ञानता के कारण रस्सी सांप प्रतीत होती है। स्वम की अज्ञानता के कारण क्षणिक स्थिति भी स्वयं का व्यक्तिगत, सीमित, अभूतपूर्व स्वरूप प्रतीत होती है।

(54) सांसारिक प्रेम की लौ जलाओ और राख की स्याही बनाओ, हृदय को कलम बनाओ, बुद्धि को लेखक बनाओ, वह लिखो जिसका कोई अंत या सीमा नहीं है। 

(55) व्यक्ति अपना जीवन सोने और खाने में गवां देता है और उसका महत्वपूर्ण जीवन बर्बाद हो जाता है। 

(56) अकेले ही उसे लगातार एकांत में ध्यान करने दो जो कि उसकी आत्मा के लिए सलाम है, क्योंकि जो एकांत में ध्यान करता है वह परम आनंद को प्राप्त करता है।

(57) अपने अस्तित्व के निवास में शांति से रहो, मृत्यु दूत तुम्हे छू भी नहीं पायेंगे।

(58) अपने जीवन में कभी ये न सोचे की यह नामुमकिन है।

(59) कर्म भूमि पर फल के लिए कर्म सबको करना पड़ता है। ईश्वर तो लक़ीरें देते हैं पर रंग हमको भरना पड़ता है। 

(60) जो भी बीज बोया जाता है, उस तरह का एक पौधा भी सामने आता है।

(61) “तु अगर मुझे नवाजे तो तेरा करम है मेरे मालिक, वरना तेरी रहमतों के काबिल मेरी बंदगी नहीं ”

(62) “वे लोग जिनके पास प्यार है, वे उन लोगो में से है जिन्होंने भगवान को ढूंढ लिया”

(63) ” सिर्फ एक ही ईश्वर है। उसका नाम सत्य है ; वह ही निर्माण कर्ता है। वह किसी से नहीं डरता है ; ना ही वह किसी से भी नफरत करता है। वह कभी मर नहीं सकता है; वह इस जन्म तथा मृत्यु के चक्र से पूर्णतः परे है। वह स्व – प्रकाशित है। वह एक सच्चे गुरु की कृपा से ही महसूस किया जा सकता है। वह आरंभ के समय मे सत्य था; वह तब भी सत्य था जब समय बीता और तब से लेकर आज तक, वह आज के समय मे भी सत्य ही है। वह अभी भी सत्य है। “

















Comments

Popular posts from this blog

1) दुःख, दर्द, पीड़ा, कष्ट, वेदना, व्यथा, क्लेश, सन्ताप, संकट, विपदा, मुश्केली, मुसीबत, Grief, Pain

ચટ પટા જલસા